झारखण्ड में घूमने जाना चाहते हैं तो एक बार यहाँ जरूर जाएं

राँची से मिला झारखंड का एक जिला है खूँटी। लोकसभा में उप-सभापति रह चुके कड़िया मुंडा खूंटी लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे। आजकल कड़िया मुंडा की विरासत केंद्र में आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा सँभाल रहे हैं पर इन बड़े कद के नेताओं से ज्यादा खूँटी का जिक्र नक्सलवाद, अफीम की खेती और पत्थलगड़ी जैसे मसलों के कारण होता रहा है। ऐसी परिस्थितियों में पर्यटन के नजरिये से देखा जाऐ तो शायद ही राँची आने वाला कोई शख्स अब तक इस ओर रुख करता होगा।

पेरवाघाघ से सटी पहाड़ी के शीर्ष पर पहुँचने के बाद
फिर भी इस क्षेत्र में सड़कों का जाल बिछने से कई जगहें अब आम जनता के दायरे में आ गयी हैं। खूँटी जिले की खूबसूरत जगह है पेरवाघाघ। राँची से करीब 75 किमी दूर इस रमणीय स्थल तक पहुँचने के लिए पहले राँची से खूँटी और फिर आगे तोरपा की सड़क पकड़नी पड़ती है। तोरपा थाना से थोड़ा पहले एक सड़क बाँयी ओर मुड़ती है जो गाँव देहात के बहुत मोड़ों को पार करते हुए पेरवाघाघ पहुँचती है।

खूँटी से तोरपा के रास्ते एक बेहद लोकप्रिय शिव मंदिर है। कहते हैं कि यहाँ आम के वृक्ष के नीचे से शिवलिंग के निकलने के कारण इसका नाम आम्रेश्वर मंदिर पड़ा। शिव मंदिर के आलावा यहाँ दुर्गा, पार्वती, सीता, भगवान राम, लक्ष्मण, हनुमान, गणेश और राधा कृष्ण को समर्पित मंदिर भी हैं पर लोग ज़्यादातर यहाँ भोलेनाथ का आशीर्वाद प्राप्त करने आते हैं।
 
आम्रेश्वर मंदिर की मीनार की ऊचाई लगभग दो सौ फीट है। जो दूर से देखने पर भी पहचान में आ जाता है इसके नीचे माँ दुर्गा का मंदिर है। इसी वज़ह से ये धाम अंगराबाड़ी के नाम से भी जाना जाता है।

आम्रेश्वर मंदिर परिसर में स्थित विभिन्न मंदिर
झारखंड का वास्तविक ग्रामीण जीवन देखना हो तो किसी भी राष्ट्रीय राजमार्ग से निकलती हुई छोटी सड़कों पर उतर लीजिए। हालांकि झारखंड की ज्यादातर भूमि पठारी है फिर भी गाँव के लोगों की आय का साधन खेती और पशुपालन ही है। पहाड़ियों और जंगलों के बीच बसे इन गाँवों को जंगल से लकड़ी और मवेशी चराने के लिए चारा आदि भी मिल जाता है।
 
ऐसे ही तीन चार गाँव पार करके जब हम पेरवाघाघ पहुँचे तो वहाँ पर्यटकों की भीड़ पहले से ही मौज़ूद थी। वैसे भी जनवरी के महीने में ऐसी जगहों पर लोग भारी तादाद में दिन भर बाहर घुमने निकते हैं। 

अगर आपको पेरवाघाघ नाम कुछ अटपटा लग रहा हो तो बता दूँ कि यहाँ की स्थानीय भाषा में पेरवा कबूतर को कहते हैं। रही बात घाघ की तो हिंदी में ये शब्द एक धूर्त या कुटिल व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है पर झारखंड में घाघ शब्द का मतलब ऊँचाई से गिरते पानी यानी झरने के लिए प्रयुक्त होता है। पहली बार मेरा घाघ शब्द से परिचय झारखंड के सबसे ऊँचे जलप्रपात लोध के झरने को देखने जाते वक़्त हुआ था। वहाँ लोग उसे बूढ़ा घाघ के नाम से पुकारते हैं।

बेहद साफ सुथरी है यहाँ कारो नदी
हमने सुना था की किसी ज़माने में यहाँ की पहाड़ी गुफाओं में कबूतरों का वास था। मैंने भी कोशिश की ये देखने कि क्या आज भी उनका वहाँ बसेरा है पर मुझे निराशा ही हाथ लगी। आजकल पिकनिक मनाने में स्वादिष्ट भोजन और तेज संगीत बजाने की अनिवार्यता हो गई है। स्थानीय झारखंडी संस्कृति तो इसमें और भी रमी हुई है इसलिए परिंदे भी वैसी जगहों से दूर होते जा रहे हैं जहाँ मनुष्य अपने स्वछंद आचरण से उनके लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है। 

पेरवाघाघ की एक झलक पाने के लिए पहाड़ों के बीच बहती उत्तरी कारो नदी के तट पर नीचे तक उतर कर नदी पार करनी पड़ती है। उत्तरी कारो नदी का उद्गम राँची के पश्चिमी छोर पर खूँटी के पठारी इलाके से होता है। वहाँ से बहते हुए ये सारंडा सिंहभूमि के जंगलों में प्रवेश करती है और कई सारे घुमाव लेते हुए दक्षिणी कोयल नदी में मिल जाती है। 

उत्तरी कारो नदी इस दिशा में बढ़ती हुई प्रवेश करती है सारंडा सिंहभूमि के वन्य क्षेत्र में आंगुतकों की सुविधा के लिए यहाँ के स्थानीय लोगों ने लकड़ी का एक पुल बनाया है जिसे पार करने के लिए आपको पाँच रुपये का एक छोटा सा फाइन देना होता है।
 
यहाँ से होने वाली आय से स्थानीय, पूरे परिसर की साफ सफाई करते हैं और लोगों पर नज़र भी बनाए रखते हैं। पेरवाघाघ पर पहुँचते ही बिना वक़्त गँवाए पुल पार कर पास ही हमने  पहाड़ी पर चढ़ाई शुरु की। कारो नदी घाटी का घुमाव कुछ ऐसा है कि बिना पहाड़ी पर चढ़े आप झरने को नहीं देख सकते। 

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 पेरवाघाघ का सुंदर जलप्रपात
पेरवाघाघ का झरना भले ही छोटा हो पर पचास फीट की ऊँचाई से गिरते पानी के बाद बनने वाला गहरे हरे रंग का जलाशय और उसके बाद की घाटी इसकी खूबसूरती को चार चाँद लगा देते हैं। झरने तक पहुँचने के लिए एक जुगाड़ वाली नाव भी है जो दोनों छोर में बँधी रस्सी की मदद से झरने के बेहद करीब ले आती है।वहां पहुंचने पर आप पानी के गिरने से हवा में उठती फुहारों को शरीर पर महसूस कर सकते हैं।  

लकड़ी की नैया 
आप नौका पर आते जाते लोगों के उत्साह को देख कर झरने को छू कर आने की इच्छा होती है और इसके लिए आप भी पंक्ति में लग जायेंगे। और सच में मजा आ जाएगा रस्सी के सहारे खिंचती इस नौका विहार का।

झरने के पास गिरती फुहारों का आनंद 
पहाड़ की चढ़ाई भी हो गयी और झरने तक की नौका यात्रा का भी आनंद ले लिया। समय अभी भी काफी है। तो चलो आपको आगे बहती नदी के साथ भी कुछ दूर ले चलें। पत्थर वैसे तो सूखे थे पर उनके बीच से कूदते फाँदते चलना बहुत मुश्किल था।
 
वहां कई लोगों को उन पत्थरों पर फिसलते देखा था और देखते ही देखते कुछ देर बाद हमारे भी कदम डगमगा गए और हम गिरते गिरते बचे। धीरे धीरे से धूप भी बढ़ती जा रही थी और लोगों की भीड़ भी। 

पेरवाघाघ में क्या करें और क्या ना करें?
वैसे तो पेरवाघाघ पुरा साल जाया जा सकता है पर अप्रैल से जून के बीच नदी के खुले पाट में चलना गर्मी की वजह से पसीने ही छुड़वाएगा। वहीं दिसंबर और जनवरी के महीनों में यहाँ भीड़ काफी ज्यादा होती है इसलिए कभी भी उसके पहले या बाद में यहाँ जाने की योजना बनाएँ।
 
यहाँ जाने के लिए तोरपा तक तो बसें चलती हैं पर आखिर के सोलह किमी की दूरी किसी निजी वाहन से ही पूरी की जा सकती हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्र होने की वजह से चार बजे के बाद यहाँ ठहरना गलत है। झरने के पास पानी अधिक गहरा होता है। वहाँ नहाना जोखिम को बुलावा देना है। 

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